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यो नो॑ दे॒वः प॑रा॒वत॑: सखित्व॒नाय॑ माम॒हे । दि॒वो न वृ॒ष्टिं प्र॒थय॑न्व॒वक्षि॑थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo no devaḥ parāvataḥ sakhitvanāya māmahe | divo na vṛṣṭim prathayan vavakṣitha ||

पद पाठ

यः । नः॒ । दे॒वः । प॒रा॒ऽवतः॑ । स॒खि॒ऽत्व॒नाय॑ । म॒म॒हे । दि॒वः । न । वृ॒ष्टिम् । प्र॒थय॑न् । व॒वक्षि॑थ ॥ ८.१२.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! जो तू (नः) हम प्राणियों का (देवः) परमपूज्य इष्टदेव है और जो तू (परावतः) पर=उत्कृष्ट स्थान से भी यद्वा अति दूर प्रदेश से भी आकर (सखित्वनाय) सखित्व=मित्रता के लिये (मामहे) हम जीवों को सुख पहुँचाता है यद्वा पूज्य होता है। हे भगवन् ! वह तू (दिवः+नः+वृष्टिम्) जैसे द्युलोक की सहायता से जगत् में परम प्रयोजनीय वर्षा देता है, तद्वत् (प्रथयन्) हम जीवों के लिये सुखों को पहुँचाता हुआ (ववक्षिथ) इस जगत् का भार उठा रहा है ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो यह परमदेव वर्षा के समान आनन्द की वृष्टि कर रहा है, वह हमारा पूज्य और वही परममित्र है ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, देवः) जो दिव्यस्वरूप आप (नः, सखित्वनाय) हमारे प्रेम के कारण (परावतः) दूरदेश से (मामहे) इष्ट पदार्थों को देते हो (दिवः) द्युलोक से (वृष्टिम्) वृष्टि को (प्रथयन्, न) जैसे उत्पन्न करके देते हो (ववक्षिथ) और सबको धारण करते हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का वर्णन करते हैं। हे परमपिता प्रभो ! हम आपके अत्यन्त कृतज्ञ हैं, आप हमारे पालन-पोषण के लिये इष्ट पदार्थों को दूरदेशों से प्राप्त कराते हैं। हे हमारे पालक पिता ! आप द्युलोक से वृष्टि वर्षाकर हमें अन्नादि अनेक पदार्थ देते हैं। हे परमात्मन् ! आप हमें बल दें कि हम कृतघ्न न होते हुए सदैव आपकी आज्ञापालन में प्रवृत्त रहें, जैसे लोक में सुपुत्र सदा अपने पिता की आज्ञापालन करते हैं ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यस्त्वम्। नोऽस्माकम्। देवः=पूज्यो दाताऽसि। यश्च त्वम्। परावतः=परस्माद् उत्कृष्टादपि स्वपदादागत्य। यद्वा। अतिदूरादपि स्थानाद् आगत्य। सखित्वनाय=सखित्वाय=मैत्राय हेतवे। मामहे=सर्वमभिलषितं ददाति। मंहतेर्दानकर्मण एतद्रूपम्। यद्वा। अस्माभिः पूज्यसे। हे इन्द्र ! स त्वम्। दिवो न वृष्टिम्=द्युलोकस्य सकाशाद् वृष्टिमिव। प्रथयन्=जगतः श्रेयांसि विस्तारयन् सन्। त्वम्। ववक्षिथ=जगदिदं वहसि ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, देवः) यो दिव्यस्वरूपस्त्वम् (नः, सखित्वनाय) अस्माकं सखित्वाय (परावतः) दूरदेशात् (मामहे) इष्टान् ददाति (दिवः) द्युलोकात् (वृष्टिम्) वर्षम् (प्रथयन्, न) उत्पादयन्निव (ववक्षिथ) सर्वान् दधासि ॥६॥